हरी बाबू की अम्मा
मौसी जी कहकर बुलाते थे हम उन्हें। बात उस समय की है जब हम नानी जी के यहां रेलवे गंज हरदोई में छुट्टियों में जाते थे। एक दिन एक महिला नानी और मम्मी मम्मी जी से मिलने आईं थीं। ऐसा क्या था जो मैंने देखा और मैं यह लिख रहा हूं। क्यूंकि बाकी लोग मिलने आते हैं उनके लिए तो ऐसा नहीं लगा। सबसे हटके था उनका दर्शन। बहुत सादी सी धोती और उस पर हल्के पीले रंग की चदरिया। पहले यह प्रथा थी जब घर की महिलाएं बाहर जाती थीं ऊपर से चादर या चदरिया चद्दर ओढ़ कर ही बाहर जाती थीं। तो सबसे पहले चादर उतारी उन्होने तुरंत उसको हल्का सा मोड़कर तहा कर रख लिया और फिर मम्मी और नानी जी से बात करने के लिए बैठ गईं। ऐसा बिल्कुल लग ही नहीं रहा था कि कोई बात कर रहा है। उनके स्वर इतने धीरे निकल रहे थे कि थोड़ी दूर पर खड़ा होने वाला को सुन नहीं सकता था। कोमल स्वर पर मृदुभाषिणी थीं। जब वे चली गईं तो पता चला कि यह हरीबाबू की अम्मा हैं। कुछ दिन बाद हम लोग अपने जनार्दन मौसा जी के यहां गए। उनको हम लोग मौसा जी कहते थे। उनका भी दर्शन विचित्र था। हृष्ट पुष्ट शरीर स्वक्ष रंग चमकता चेहरा उस पर दो काली बड़ी ऐंठन लिए हुई मूछें। उनके नीचे लालिमा से धड़कते हुए ओंठ। मुस्करा कर हमलोगो का स्वागत-सत्कार किया। तुरंत ही उनकी पत्नी भी आगे आ गई। उनका भी सफेद चेहरा और वही होठों पर लालिमा थी। माथे पर विशाल बिंदी लाल बिंदी। पूरा शरीर किसी ना किसी गहने आरुढ़ था। मौसा मौसी जी दोनों ही पान के शौकीन थे ओठों की लालिमा चीख चीखकर इस बात की गवाही दे रही थी।
घर में घुसते ही दांई तरफ पहला दरवाजा एक कमरे में खुलता था पता नहीं क्यों उस कमरे में चमक नहीं थी जैसी कि दूसरे कमरे में थी। पहले कमरे में हरीबाबू की अम्मा रहती थीं। चूल्हे में लकड़ियां उसी कमरे में जलाती रही होंगी इसलिए कमरे की दीवारों पर अंधकार की कालिमा चढ़ गयी होगी। बहुत बड़ा घर था छोटा मोटा नहीं था। दो मंजिला घर था मुख्य सड़क पर था। पूरी सड़क पर दुकानें बनी थी। वह सड़क आगे जाकर रेलवे स्टेशन वाली सड़क से मिलती थी। और बांए मुड़ने के बाद कुछ कदम पर रेलवे स्टेशन था। वह सड़क ही मुख्य बाजार थी। जिस हिस्से में हम मौसाजी से मिले थे वह हिस्सा पक्का बना हुआ था। पर इस कमरे में अंन्दर से कुर्ता लगरहा था। हम लोग मौसा जी के साथ जहां बैठे थे उस कमरे की छत धन्निया लगी हुई थी। ऐसे ही घर बनते थे पहले। बाहर से पूरे पक्के फर्श भी पक्का होता था लेकिन छत के नीचे लकड़ी की धन्नियां लगी होती थी लकड़ी की तख्तियां लगी होती थी ऊपर से कंकड़ पत्थर गारा डाल के पक्की छत बनाई जाती थी। अलीगढ़ में एक बुआजी के घर में लकड़ी की तख्तियों की जगह पत्थर लगे थे। लखनऊ में गणेशगंज वाले घर में भी लकड़ी की तख्तियां ही लगीं थीं। जब ऊपर कोई चलता था तो एक अजीब सा कंपन महसूस होता था।
उस कमरे में कई खिड़कियां भेजो की थीं जो सड़क की तरफ खुलती थीं। कई जगह पर नक्काशीदार लकड़ियों का काम था। खिड़कियों के पल्लों पर दरवाजों पर देहरी पर कुछ कारीगरी थी कुल मिलाकर शोभनीय था।
पर मेरी मन में यह बात आती थी कि एक ही घर में दो तरीके से कैसे रहते हैं लोग। पहले कमरे में हरीबाबू की अम्मा और हरीबाबू रहते थे। दूसरे कमरे में मौसा जी दूसरी मौसी जी के साथ रहते थे उनके तीन बच्चे थे। बड़े मुनक्कू छोटे मुनक्कू और तीसरा शायद पुत्र ही था। बड़े मुनक्कू की आवाज तो बहुत तेज थी। पर हरिबाबू की अम्मा जिनको हम मौसी कहते थे उन्हें मैंने कभी भी ऊंचे स्वर में बात करते हुए नहीं सुना। उनका हर किसी से विनम्रता से भरा हुआ स्वर रहता था। परंतु ऐसा क्यों था? कि वह एकदम सादे लिबास में रहती थी? जैसे कि विधवा हो गई हों। समाज में कई चीजें ऐसी कई बातें थीं जिनका कोई औचित्य नहीं होता था। ऐसा क्या था कि मौसी और हरीबाबू परिवार के होते हुए भी अलग थलग कटे कटे से रहते थे। जब भी हम वहां जाते थे तो मौसी जी के कमरे में ज़रूर जाते थे। उनके कमरे में एक दरवाजा बाहर की ओर खुलता था। पर वह दुकानों की छत थी। खुला था पर एक मंजिल उपर। पर वही पर उन्होंने चूल्हा बनाया था। अच्छा था कि वे उस जगह पर खुले में खुले सांस ले सकतीं थीं। दूसरी तरफ तो घर का आंगन था और उधर जाने से उन्हें उनके पति के दूसरे परिवार दिखाई देता। घर पर जब हम जाते थे तो सड़क पर सबसे पहले तो दुकान ही पड़ती थी उसपर हमेशा हरीबाबू भाईसाहब ही बैठे दिखते थे और कोई नहीं। ऐसा लगता है कि मौसाजी ने उन्हें यह दुकान खुलवा दी होगी और उससे ही उनका खर्च चलता होगा। हम तो कभी कभार ही जाननेवालों में से थे। कोई सगा संबंध तो था नहीं। पता नहीं। पर मौसी जी के जीवन को लेकर आज भी मैं सवालों से घिरा रहता हूं। बड़ मुनक्के भाईसाहब की बारात में बाराती बनकर भी जा चुका हूं। लगभग ३० वर्षों से ज्यादा समय हो गया है तबसे हरदोई नहीं गया हूं। वहां का हाल करता है पता नहीं पर मौसी के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए हमेशा आतुर रहता हूं।
Wednesday, January 23, 2019
हरी बाबू की अम्मा
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