Wednesday, January 23, 2019

हरी बाबू की अम्मा

हरी बाबू की अम्मा
मौसी जी कहकर बुलाते थे हम उन्हें। बात उस समय की है जब हम नानी जी के यहां रेलवे गंज हरदोई में छुट्टियों में जाते थे। एक दिन एक महिला नानी और मम्मी मम्मी जी से मिलने आईं थीं। ऐसा क्या था जो मैंने देखा और मैं यह लिख रहा हूं। क्यूंकि बाकी लोग मिलने आते हैं उनके लिए तो ऐसा नहीं लगा। सबसे हटके था उनका दर्शन। बहुत सादी सी धोती और उस पर हल्के पीले रंग की चदरिया। पहले यह प्रथा थी जब घर की महिलाएं बाहर जाती थीं ऊपर से चादर या चदरिया चद्दर ओढ़ कर ही बाहर जाती थीं। तो सबसे पहले चादर उतारी उन्होने तुरंत उसको हल्का सा मोड़कर तहा कर रख लिया और फिर मम्मी और नानी जी से बात करने के लिए बैठ गईं। ऐसा बिल्कुल लग ही नहीं रहा था कि कोई बात कर रहा है। उनके स्वर इतने धीरे निकल रहे थे कि थोड़ी दूर पर खड़ा होने वाला को सुन नहीं सकता था। कोमल स्वर पर मृदुभाषिणी थीं।  जब वे चली गईं तो पता चला कि यह हरीबाबू की अम्मा हैं। कुछ दिन बाद हम लोग अपने जनार्दन मौसा जी के यहां गए। उनको हम लोग मौसा जी कहते थे। उनका भी दर्शन विचित्र था। हृष्ट पुष्ट शरीर स्वक्ष रंग चमकता चेहरा उस पर दो काली बड़ी ऐंठन लिए हुई मूछें। उनके नीचे लालिमा से धड़कते हुए ओंठ। मुस्करा कर हमलोगो का स्वागत-सत्कार किया। तुरंत ही उनकी पत्नी भी आगे आ गई। उनका भी सफेद चेहरा और वही होठों पर लालिमा थी। माथे पर विशाल बिंदी लाल बिंदी। पूरा शरीर किसी ना किसी गहने आरुढ़ था। मौसा मौसी जी दोनों ही पान के शौकीन थे ओठों की लालिमा चीख चीखकर इस बात की गवाही दे रही थी।
घर में घुसते ही दांई तरफ पहला दरवाजा एक कमरे में खुलता था पता नहीं क्यों उस कमरे में चमक नहीं थी जैसी कि दूसरे कमरे में थी। पहले कमरे में हरीबाबू की अम्मा रहती थीं। चूल्हे में लकड़ियां उसी कमरे में जलाती रही होंगी इसलिए कमरे की दीवारों पर अंधकार की कालिमा चढ़ गयी होगी। बहुत बड़ा घर था छोटा मोटा नहीं था। दो मंजिला घर था मुख्य सड़क पर था। पूरी सड़क पर दुकानें बनी थी। वह सड़क आगे जाकर रेलवे स्टेशन वाली सड़क से मिलती थी। और बांए मुड़ने के बाद कुछ कदम पर रेलवे स्टेशन था। वह सड़क ही मुख्य बाजार थी।   जिस हिस्से में हम मौसाजी से मिले थे वह हिस्सा पक्का बना हुआ था। पर इस कमरे में अंन्दर से कुर्ता लगरहा था। हम लोग मौसा जी के साथ जहां बैठे थे उस कमरे की छत धन्निया लगी हुई थी। ऐसे ही घर बनते थे पहले। बाहर से पूरे पक्के फर्श भी पक्का होता था लेकिन छत के नीचे लकड़ी की धन्नियां लगी होती थी लकड़ी की तख्तियां लगी होती थी ऊपर से कंकड़ पत्थर गारा डाल के पक्की छत बनाई जाती थी। अलीगढ़ में एक बुआजी के घर में लकड़ी की तख्तियों की जगह पत्थर लगे थे। लखनऊ में गणेशगंज वाले घर में भी लकड़ी की तख्तियां ही लगीं थीं। जब ऊपर कोई चलता था तो एक अजीब सा कंपन महसूस होता था।
उस कमरे में कई खिड़कियां भेजो की थीं जो सड़क की तरफ खुलती थीं। कई जगह पर नक्काशीदार लकड़ियों का काम था। खिड़कियों के पल्लों पर दरवाजों पर देहरी पर कुछ कारीगरी थी कुल मिलाकर शोभनीय था।
पर मेरी मन में यह बात आती थी कि एक ही घर में दो तरीके से कैसे रहते हैं लोग। पहले कमरे में हरीबाबू की अम्मा और हरीबाबू रहते थे। दूसरे कमरे में मौसा जी दूसरी मौसी जी के साथ रहते थे उनके तीन बच्चे थे। बड़े मुनक्कू छोटे मुनक्कू और तीसरा शायद पुत्र ही था। बड़े मुनक्कू की आवाज तो बहुत तेज थी। पर हरिबाबू की अम्मा जिनको हम मौसी कहते थे उन्हें मैंने कभी भी ऊंचे स्वर में बात करते हुए नहीं सुना। उनका हर किसी से विनम्रता से भरा हुआ स्वर रहता था। परंतु ऐसा क्यों था? कि वह एकदम सादे लिबास में रहती थी? जैसे कि विधवा हो गई हों। समाज में कई चीजें ऐसी कई बातें थीं जिनका कोई औचित्य नहीं होता था। ऐसा क्या था कि मौसी और हरीबाबू परिवार के होते हुए भी अलग थलग कटे कटे से रहते थे। जब भी हम वहां जाते थे तो मौसी जी के कमरे में ज़रूर जाते थे। उनके कमरे में एक दरवाजा बाहर की ओर खुलता था। पर वह दुकानों की छत थी। खुला था पर एक मंजिल उपर। पर वही पर उन्होंने चूल्हा बनाया था। अच्छा था कि वे उस जगह पर खुले में खुले सांस ले सकतीं थीं। दूसरी तरफ तो घर का आंगन था और उधर जाने से उन्हें उनके पति के दूसरे परिवार दिखाई देता। घर पर जब हम जाते थे तो सड़क पर सबसे पहले तो दुकान ही पड़ती थी उसपर हमेशा हरीबाबू भाईसाहब ही बैठे दिखते थे और कोई नहीं। ऐसा लगता है कि मौसाजी ने उन्हें यह दुकान खुलवा दी होगी और उससे ही उनका खर्च चलता होगा। हम तो कभी कभार ही जाननेवालों में से थे। कोई सगा संबंध तो था नहीं। पता नहीं। पर मौसी जी के जीवन को लेकर आज भी मैं सवालों से घिरा रहता हूं। बड़ मुनक्के भाईसाहब की बारात में बाराती बनकर भी जा चुका हूं। लगभग ३० वर्षों से ज्यादा समय हो गया है तबसे हरदोई नहीं गया हूं। वहां का हाल करता है पता नहीं पर मौसी के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए हमेशा आतुर रहता हूं।

Monday, January 14, 2019

Sakranti: What is so special about it? just a Khichdi?

Khichdi, Makar Sankranti, Lohri, Bihu even Pongal: all are harvest festivals. 
Amazing thing is that these are celebrated across India and during same period of time. This time marks end of winter season- Hemant and beginning of Spring -Vasant. But it is also time of transition-that is called Shishir season.  ग्रीष्म वर्षा पतझड़ शीत-हेमंत शिशिर
Since centuries it is known as sankranti सन्क्रांती। There are two or more sankranti- Makar sankranti and Kark Sankranti. These two are for solar transition. One is when sun moves towards north hemisphere that is precisely called as Uttarayan उत्तरायण. Similarly other is called dakshinayan दक्षिणायन when moves to southern hemisphere on to cancer latitude.
Amazing thing is that for centuries such calculations/ predictions has been in practice in India. Great mathematician that time called jyotishshashtri. I don’t know whether word khagolsashtri was in use during those times. Common words would have been आचार्य or शास्त्री etc?
But they had been predicting makar sankranti. माघ Magh month? That’s why a festival is known as Magh Bihu in Assam.
Whatever may be the festival, festivities are never complete without food! Food is most essential part of our festivals. This time of transition in climate change induces changes in Human digestive behaviour, if I may say so. Thus at this time food cooked is from fresh harvest. Mostly rice based food are very fresh or freshest, that’s why amount of antioxidants and other chemicals are high.  And we know that farm fresh food is always good better than cold storage.
Few places people fly Kites.














At our place sesame til तिल and गुड़ jaggery is used to make laddoos.  Some where शकरकंद  sweet  potato  कंद Yam are also eaten on this day.  Peanuts मूंगफली और रामदाना amaranth की गुड़ की पट्टी।    मक्का maize  बाजरा barley  along with sarson सरसों का साग and any type of fresh available  vegetables are cooked. With generous amount of ghee is must. Ghee is always considered best if it is made up of cow's milk.





As per Ayurvedic experts digestive power is at its height- Agni अग्नी. Festive diet provides required nutrients.  It is last chance to have winter’s goodness. Thus take advantage. Prepare your body to last and fight with infections building in air during this time. So by keeping diet of traditional foods that have this power. As they right mix of ingredients.


Biotin and Choline these two things are present in some foods that are used in this festival. Peanuts and Sesame have Bitone. Sweet Potato is rich in Choline!! these are anti-inflamatory in nature
Thus on sankranti day many times we used to go to Bithoor, Kanpur. On banks of river Ganga, a pit is made in sand. Fire is lit by keeping wood over that pit. Earthen vessels is filled with rice and urad Dal. Thus khichdi is cooked. After having dip the holy bath 8n river khichdi is relished under winter sunlight. Lots of daan दान is given of rice Dal red chili salt fruits and money as per affordable limits to the poor persons. Few give to temples, or to orphanage, or to brahmins etc.

The first act is to keep aside a portion of such ingredients of khichdi in the morning itself, mostly done by women/ ladies, but giving act is often happens with the hands of males. Or married couples together do it. Women keep hands just to show that they have touched it. But in present times rituals have undergone change. Now even we have online donations! Like I do to Akshaypatra. Thinking that they are feeding needy poor school children of remote villages.  Earlier centuries such village level schools were supported by the community itself.
It is nice idea to cook in earthen pots that too outside. In Pongal people do it in South India. It becomes a community festival.

In all the states this festival with different names is celebrated and along-with local/regional rituals. Even each family or clan have their own separate ways- rituals, that they follow.